Wednesday, 17 October 2012

Humko Mohabbat Hai Zindgi Se…

Apno se juda kar deti hai,
Aakhon mein paani bhar deti hai,
Kitni shikayat hai zindgi se.
Phir bhi iska aitbaar hai,
Phir bhi iska intzaar hai,
Humko mohabbat hai zindgi se.
Kabhi khushiyon ka mela lagta hai,
Kabhi har koi akela lagta hai.
Kabhi humpe karam pharmati hai,
Kabhi humse nazar churati hai.
Palkon se isko chakhte hain,
Isey pass hi apne rakhte hain,
Itni nazakat hai zindgi se,
Humko mohabbat hai zindgi se.
Humko adaayein dikhati hai ye,
Jeena bhi humko sikhati hai ye.
Kabhi paas hai to kabhi door hai,
Ye zindgi bhi badi mashhoor hai.
Kabhi karti hai aankh micholi,
kabhi sajaye sapno ki doli,
Itni shararat hai zindgi se.
Humko mohabbat hai zindgi se.
Door ye ho to ghum hota hai,
Pass ho to iska karam hota hai.
Khud apni marzi se chalti hai,
Suraj ki tarah se ye dhalti hai.
Isey jab bhi hum dekhte hain,
Mann hi mann ye sochte hain,
Kitni hifazat hai zindgi se.
Humko mohabbat hai zindgi se.
Aansu bhi ho to pee lete hain,
Pal do pal khushi se jee lete hain.
Har pal humko nahi hai roka,
Thoda humko bhi deti mouka.
Zindgi gujar jaaye taqraar mein,
Chahe gujar jaaye ye pyaar mein,
Itni izazat hai zindgi se.
Humko mohabbat hai zindgi se.

MAA


Zindagi ki tapti dhoop mai ek thanda saya paya hai mai ne
Jab kholi aankh to apni maa ko muskorata howa paya hai mai ne
Jab bhi maa ka naam liya,
Os ka beshomaar pyar paya hai mai ne
Jab koi dard mehsoos howa, jab koi mushkil aayi
Apne pehlo mai apni maa ko paya hai mai ne
Jaagti rahi who raat bhar mere liye
Jaane kitni raatein, osay jagaya hai mai ne
Zindagi ke har moadh(mor) par, jab howi gumrah mai
Iski hidaayat par, pakarli seedhi raah mai ne
Jis ki dua se har moseebat loat jaye,
Aisa farishta paya hai mai ne
Meri har fiker ko janne wali,
Mere jazbaaton ko pehcanne wali,
Aisi hasti payi hai mai ne
Meri zindagi sirf meri maa hai,
Isi ke liye to,
Is zindagi ki shama jala rakkhi hai mai ne


Insaf ki Dagar Pe


इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के
दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के
अपने हों या पराए सबके लिये हो न्याय
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्भल-सम्भल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के
इन्सानियत के सर पर इज़्ज़त का ताज रखना
तन मन भी भेंट देकर भारत की लाज रखना
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के,
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

Khooni Hastakshar


वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का
आ सके देश के काम नहीं ।
वह खून कहो किस मतलब का
जिसमें जीवन, न रवानी है ।
जो परवश होकर बहता है,
वह खून नहीं, पानी है ।
उस दिन लोगों ने सही-सही
खून की कीमत पहचानी थी ।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में
मॉंगी उनसे कुरबानी थी ।
बोले, "स्वतंत्रता की खातिर
बलिदान तुम्हें करना होगा ।
तुम बहुत जी चुके जग में,
लेकिन आगे मरना होगा ।
आज़ादी के चरणों में जो,
जयमाल चढ़ाई जाएगी ।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के
फूलों से गूँथी जाएगी ।
आजादी का संग्राम कहीं
पैसे पर खेला जाता है?
यह शीश कटाने का सौदा
नंगे सर झेला जाता है"
यूँ कहते-कहते वक्ता की
आंखों में खून उतर आया ।
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा
दमकी उनकी रक्तिम काया ।
आजानु-बाहु ऊँची करके,
वे बोले, "रक्त मुझे देना ।
इसके बदले भारत की
आज़ादी तुम मुझसे लेना।"
हो गई सभा में उथल-पुथल,
सीने में दिल न समाते थे ।
स्वर इनकलाब के नारों के
कोसों तक छाए जाते थे ।
“हम देंगे-देंगे खून”
शब्द बस यही सुनाई देते थे ।
रण में जाने को युवक खड़े
तैयार दिखाई देते थे ।
बोले सुभाष, "इस तरह नहीं,
बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, है कौन यहॉं
आकर हस्ताक्षर करता है?
इसको भरनेवाले जन को
सर्वस्व-समर्पण करना है ।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन
माता को अर्पण करना है ।
पर यह साधारण पत्र नहीं,
आज़ादी का परवाना है ।
इस पर तुमको अपने तन का
कुछ उज्जवल रक्त गिराना है ।
वह आगे आए जिसके तन में
खून भारतीय बहता हो ।
वह आगे आए जो अपने को
हिंदुस्तानी कहता हो ।
वह आगे आए, जो इस पर
खूनी हस्ताक्षर करता हो ।
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए
जो इसको हँसकर लेता हो ।"
सारी जनता हुंकार उठी-
हम आते हैं, हम आते हैं ।
माता के चरणों में यह लो,
हम अपना रक्त चढाते हैं ।
साहस से बढ़े युबक उस दिन,
देखा, बढ़ते ही आते थे ।
चाकू-छुरी कटारियों से,
वे अपना रक्त गिराते थे ।
फिर उस रक्त की स्याही में,
वे अपनी कलम डुबाते थे ।
आज़ादी के परवाने पर
हस्ताक्षर करते जाते थे ।
उस दिन तारों ने देखा था
हिंदुस्तानी विश्वास नया ।
जब लिक्खा महा रणवीरों ने
ख़ूँ से अपना इतिहास नया ।

Inklab ke Geet Sunane Wala Hoon


बहुत दिनों के बाद छिड़ी है वीणा की झंकार अभय
बहुत दिनों के बाद समय ने गाया मेघ मल्हार अभय
बहुत दिनों के बाद किया है शब्दों ने श्रृंगार अभय
बहुत दिनों के बाद लगा है वाणी का दरबार अभय
बहुत दिनों के बाद उठी है प्राणों में हूंकार अभय
बहुत दिनों के बाद मिली है अधरों को ललकार अभय
बहुत दिनों के बाद मौन का पर्वत पिघल रहा है जी
बहुत दिनों के बाद मजीरा करवट बदल रहा है जी
मैं यथार्थ का शिला लेख हूँ भोजपत्र वरदानों का
चिंतन में दर्पण हूँ भारत के घायल अरमानों का
इसी लिए मैं शंखनाद कर अलख जगाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ
अंधकार में समां गये जो तूफानों के बीच जले
मंजिल उनको मिली कभी जो एक कदम भी नहीं चले
क्रांति कथानायक गौण पड़े हैं गुमनामी की बाँहों में
गुंडे तश्कर तने खड़े हैं राजभवन की राहों में
यहाँ शहीदों की पावन गाथाओं को अपमान मिला
डाकू ने खादी पहनी तो संसद में सम्मान मिला
राजनीती में लौह पुरुष जैसा सरदार नहीं मिलता
लाल बहादुर जी जैसा कोई किरदार नहीं मिलता
नानक गाँधी गौतम का अरमान खो गया लगता है
गुलजारी नंदा जैसा ईमान खो गया लगता है
एरे-गैरे नथू-गैरे संतरी बन कर बैठे हैं
जिनको जेलों में होना था मंत्री बन कर बैठे हैं
मैंने देशद्रोहियों का अभिनन्दन होते देखा है
भगत सिंह का रंग बसंती चोला रोते देखा है
लोकतंत्र का मंदिर भी लाचार बना कर डाल दिया
कोई मछली बिकने का बाजार बना कर डाल दिया
अब भारत को संसद भी दुर्पंच दिखाई देती है
नौटंकी करने वालो का मंच दिखाई देती हैं
राज मुखट पहने बैठे है मानवता के अपराधी
मैं सिंहासन की बर्बरता को ठुकराने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ
आजादी के सपनो का ये कैसा देश बना डाला
चाकू चोरी चीरहरण वाला परिवेश बना डाला
हर चौराहे से आती है आवाजें संत्रासों की
पूरा देश नजर आता है मण्डी ताजा लाशों की
हम सिंहासन चला रहे हैं राम राज के नारों से
मदिरा की बदबू आती हैं संसद की दीवारों से
अख़बारों में रोज खबर है चरम पंथ के हमलों की
आँगन की तुलसी दासी है नागफनी के गमलो की
आज देश में अपहरणो की स्वर्णमयी आजादी है
रोज गोडसे की गोली के आगे कोई गाँधी हैं
संसद के सीने पर खूनी दाग दिखाई देता है
पूरा भारत जालिया वाला बाग़ दिखाई देता है
रोज कहर के बादल फटते है टूटी झोपडियों पर
संसद कोई बहस नहीं करती भूखी अंतडियों पर
वे उनके दिल के छालों की पीड़ा और बढ़ातें हैं
जो भूखे पेटों को भाषा का व्याकरण पढातें हैं
लेकिन जिस दिन भूख बगावत करने पर आ जाती है
उस दिन भूखी जनता सिंहासन को भी खा जाती है
जबतक बंद तिजोरी में मेहनतकश की आजादी है
तब तक सिंहासन को अपराधी बतलाने वाला हूँ
कलमकार हूँ कलमकार का धर्म निभाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
राजनीति चुल्लू भर पानी है जनमत के सागर में
सब गंगा समझे बैठे है अपनी अपनी गागर में
जो मेधावी राजपुरुष हैं उन सबका अभिनन्दन है
उनको सौ सौ बार नमन है, मन प्राणों से वंदन है
जो सच्चे मन से भारत माँ की सेवा कर सकते हैं
उनके कदमो में हम अपने प्राणों को धर सकते हैं
लेकिन जो कुर्सी के भूखे दौलत के दीवाने हैं
सात समुन्दर पार तिजोरी में जिनके तहखाने हैं
जिनकी प्यास महासागर है भूख हिमालय पर्वत है
लालच पूरा नील गगन है दो कोडी की इज्जत है
इनके कारण ही बनते है अपराधी भोले भाले
वीरप्पन पैदा करते हैं नेता और पुलिस वाले
अनुशाशन नाकाम प्रषाशन कायर गली कूचो में
दो सिंहासन लटक रहे हैं वीरप्पन की मूछों में
उनका भी क्या जीना जिनको मर जाने से डर होगा
डाकू से डर जाने वाला राजपुरुष कायर होगा
सौ घंटो के लिए हुकूमत मेरे हाथों में दे दो
वीरप्पन जिन्दा बच जाये तो मुझको फांसी दे दो
कायरता का मणि मुकुट है राजधर्म के मस्तक पर
मैं शाशन को अभय शक्ति का पाठ पढ़ाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ
बुद्धिजीवियों को ये भाषा अखबारी लग सकती है
मेरी शैली काव्य-शिल्प की हत्यारी लग सकती है
लेकिन जब संसद गूंगी शासन बहरा हो जाता है
और कलम की आजादी पर भी पहरा हो जाता है
जब पूरा जन गण मन घिर जाता है घोर निराशा में
कवि को चिल्लाना पडता है अंगारों की भाषा में
जिन्दा लाशें झूठ की जय जय कर नहीं करती
प्यासी आँखे सिंहासन वालो को प्यार नहीं करती
सत्य कलम की शक्तिपीठ है राजधर्म पर बोलेगी
समय तुला भी वर्तमान के अपराधों को तोलेगी
मनुहारों से लहू के दामन साफ़ नहीं होंगे
इतिहासों की तारिखों में कायर माफ़ नहीं होंगे
शासन चाहे तो वीरप्पन कभी नहीं बच सकता है
सत्यमंगलम के जंगल में कोहराम मच सकता है
लेकिन बड़े इशारे पाकर वर्दी सोती रहती है
राजनीती की अपराधों से फिक्सिंग होती रहती हैं
डाकू नेता और पुलिस का गठबंधन हो जाता हैं
नागफनी काँटों का जंगल चन्दन वन हो जाता है
अपराधों को संरक्षण है राजमहल की चौखट से
मैं दरबारों के दामन के दाग दिखाने वाला हूँ
अग्निवंश के चारण कुल की भाषा गाने वाला हूँ
कलमकार हूँ इन्कलाब के गीत सुनाने वाला हूँ.......


Ekadasha Rudra






“Ekadasha Rudra” of Mangrauni. Not more than five kilometer distance from 
Madhubani town, there is a historical and epical place known as Mangrauni. In ancient time, the name of Mangrauni was “Mangalwani” that means “The place of blessings” or “The place of worshippers”. Though there are so many temples in Mangrauni b
ut the “Ekadasha Rudra” is mesmerizing one and probably only one temple of its type in India. In “Ekadasha Rudra” temple, the eleven shivlings is having the eleven forms of shiva – Mahadev, Shiva, Rudra, Shankar, Neel, Lohit, Ishaan, Vijay, Bheem, Bhavodev and Kapali. The specialty of these shivlings is that the work related to his different forms are made or symbolized on the respective shivlings. This unique temple was made by the famous enchanter Late Pundit Muneeshwar Jha in 1946. It is made up of black granite which was imported from Jaipur. Behind the “Ekadash Rudra” shivlings, there is an idol of Lord Shiva and Parvati in “Pleasure Posture” or “Anand Mudra”.According to the Tantric view, in that posture Shiva is teaching Tantra to goddess Parvati but the epical meaning is completely different.